जय शनि देव जी की क्विज़!
आपका स्वागत है जय शनि देव जी की क्विज़ में। यह एक रोचक प्रश्नोत्तरी है जिसमें आप अपने ज्ञान को परीक्षण कर सकते हैं। इस क्विज़ में शनि देव जी और उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं से संबंधित प्रश्न होंगे। आपको शनि देव जी की कथाओं, उनकी व्रतों, मंत्रों और मंदिरों के बारे में जानकारी रखनी होगी।
Weekly Hindu Pooja Quiz with katha, chalisha and aarti
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- गुरूवार/बृहस्पतिवार – Brihaspati Dev Ji ki Quiz
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- रविवार – Shurya Devi Ji Quiz
Attempt Quiz of Shri Shani Dev Ji Ki
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यह क्विज़ आपको शनि देव जी की महत्त्वपूर्ण बातें और उनके परिवार के बारे में भी बताएगा। इससे आपका ज्ञान बढ़ेगा और आप शनि देव जी के प्रति अधिक समर्पित होंगे।
इस क्विज़ में भाग लेने के लिए तैयार रहें और अपने दोस्तों को भी आमंत्रित करें। यह आपके ज्ञान को बढ़ाने के साथ-साथ आपको मनोरंजन भी प्रदान करेगा।
Sri Shani dev ji ki katha in Hindi for Quiz
एक समय सभी नवग्रहओं : सूर्य, चंद्र, मंगल, बुद्ध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु में विवाद छिड़ गया, कि इनमें सबसे बड़ा कौन है? सभी आपस मेंं लड़ने लगे, और कोई निर्णय ना होने पर देवराज इंद्र के पास निर्णय कराने पहुंचे. इंद्र इससे घबरा गये, और इस निर्णय को देने में अपनी असमर्थता जतायी. परन्तु उन्होंने कहा, कि इस समय पृथ्वी पर राजा विक्रमादित्य हैं, जो कि अति न्यायप्रिय हैं। वे ही इसका निर्णय कर सकते हैं। सभी ग्रह एक साथ राजा विक्रमादित्य के पास पहुंचे, और अपना विवाद बताया। साथ ही निर्णय के लिये कहा। राजा इस समस्या से अति चिंतित हो उठे, क्योंकि वे जानते थे, कि जिस किसी को भी छोटा बताया, वही कुपित हो उठेगा. तब राजा को एक उपाय सूझा. उन्होंने स्वर्ण, रजत, कांस्य, पीतल, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक और लौह से नौ सिंहासन बनवाये, और उन्हें इसी क्रम से रख दिये. फ़िर उन सबसे निवेदन किया, कि आप सभी अपने अपने सिंहासन पर स्थान ग्रहण करें। जो अंतिम सिंहासन पर बेठेगा, वही सबसे छोटा होगा। इस अनुसार लौह का सिंहासन सबसे बाद में होने के कारण, शनिदेव सबसे बाद में बैठे. तो वही सबसे छोटे कहलाये. उन्होंने सोचा, कि राजा ने यह जान बूझ कर किया है। उन्होंने कुपित हो कर राजा से कहा “राजा! तू मुझे नहीं जानता. सूर्य एक राशि में एक महीना, चंद्रमा सवा दो महीना दो दिन, मंगल डेड़ महीना, बृहस्पति तेरह महीने, व बुद्ध और शुक्र एक एक महीने विचरण करते हैं. परन्तु मैं ढाई से साढ़े-सात साल तक रहता हूं. बड़े बड़ों का मैंने विनाश किया है. श्री राम की साढ़े साती आने पर उन्हें वनवास हो गया, रावण की आने पर उसकी लंका को बंदरों की सेना से परास्त होना पड़ा.अब तुम सावधान रहना.” ऐसा कहकर कुपित होते हुए शनिदेव वहां से चले गये. अन्य देवता खुशी खुशी चले गये। कुछ समय बाद राजा की साढ़े साती आयी। तब शनि देव घोड़ों के सौदागर बनकर वहां आये। उनके साथ कई बढ़िया घोड़े थे।
राजा ने यह समाचार सुन अपने अश्वपाल को अच्छे घोड़े खरीदने की आज्ञा दी। उसने कई अच्छे घोड़े खरीदे व एक सर्वोत्तम घोड़े को राजा को सवारी हेतु दिया। राजा ज्यों ही उस पर बैठा, वह घोड़ा सरपट वन की ओर भागा, भीषण वन में पहुंच वह अंतर्धान हो गया, और राजा भूखा प्यासा भटकता रहा। तब एक ग्वाले ने उसे पानी पिलाया. राजा ने प्रसन्न हो कर उसे अपनी अंगूठी दी। वह अंगूठी देकर राजा नगर को चल दिया, और वहां अपना नाम उज्जैन निवासी वीका बताया। वहां एक सेठ की दुकान में उसने जल इत्यादि पिया. और कुछ विश्राम भी किया। भाग्यवश उस दिन सेठ की बड़ी बिक्री हुई। सेठ उसे खाना इत्यादि कराने खुश होकर अपने साथ घर ले गया। वहां उसने एक खूंटी पर देखा, कि एक हार टंगा है, जिसे खूंटी निगल रही है। थोड़ी देर में पूरा हार गायब था। तब सेठ ने आने पर देखा कि हार गायब है। उसने समझा कि वीका ने ही उसे चुराया है। उसने वीका को कोतवाल के पास पकड़वा दिया। फिर राजा ने भी उसे चोर समझ कर हाथ पैर कटवा दिये। वह चौरंगिया बन गया।और नगर के बाहर फिंकवा दिया गया। वहां से एक तेली निकल रहा था, जिसे दया आयी, और उसने वीका को अपनी गाडी़ में बिठा लिया। वह अपनी जीभ से बैलों को हांकने लगा। उस काल राजा की शनि दशा समाप्त हो गयी। वर्षा काल आने पर वह मल्हार गाने लगा। तब वह जिस नगर में था, वहां की राजकुमारी मनभावनी को वह इतना भाया, कि उसने मन ही मन प्रण कर लिया, कि वह उस राग गाने वाले से ही विवाह करेगी। उसने दासी को ढूंढने भेजा। दासी ने बताया कि वह एक चौरंगिया है। परन्तु राजकुमारी ना मानी। अगले ही दिन से उठते ही वह अनशन पर बैठ गयी, कि विवाह करेगी तो उसी से। उसे बहुतेरा समझाने पर भी जब वह ना मानी, तो राजा ने उस तेली को बुला भेजा, और विवाह की तैयारी करने को कहा।फिर उसका विवाह राजकुमारी से हो गया। तब एक दिन सोते हुए स्वप्न में शनिदेव ने राजा से कहा: राजन्, देखा तुमने मुझे छोटा बता कर कितना दुःख झेला है। तब राजा ने उनसे क्षमा मांगी, और प्रार्थना की , कि हे शनिदेव जैसा दुःख मुझे दिया है, किसी और को ना दें।
शनिदेव मान गये, और कहा: जो मेरी कथा और व्रत कहेगा, उसे मेरी दशा में कोई दुःख ना होगा। जो नित्य मेरा ध्यान करेगा, और चींटियों को आटा डालेगा, उसके सारे मनोरथ पूर्ण होंगे। साथ ही राजा को हाथ पैर भी वापस दिये। प्रातः आंख खुलने पर राजकुमारी ने देखा, तो वह आश्चर्यचकित रह गयी। वीका ने उसे बताया, कि वह उज्जैन का राजा विक्रमादित्य है। सभी अत्यंत प्रसन्न हुए। सेठ ने जब सुना, तो वह पैरों पर गिर कर क्षमा मांगने लगा। राजा ने कहा, कि वह तो शनिदेव का कोप था। इसमें किसी का कोई दोष नहीं। सेठ ने फिर भी निवेदन किया, कि मुझे शांति तब ही मिलेगी जब आप मेरे घर चलकर भोजन करेंगे। सेठ ने अपने घर नाना प्रकार के व्यंजनों से राजा का सत्कार किया। साथ ही सबने देखा, कि जो खूंटी हार निगल गयी थी, वही अब उसे उगल रही थी। सेठ ने अनेक मोहरें देकर राजा का धन्यवाद किया, और अपनी कन्या श्रीकंवरी से पाणिग्रहण का निवेदन किया। राजा ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। कुछ समय पश्चात राजा अपनी दोनों रानीयों मनभावनी और श्रीकंवरी को सभी उपहार सहित लेकर उज्जैन नगरी को चले। वहां पुरवासियों ने सीमा पर ही उनका स्वागत किया। सारे नगर में दीपमाला हुई, व सबने खुशी मनायी। राजा ने घोषणा की , कि मैंने शनि देव को सबसे छोटा बताया था, जबकि असल में वही सर्वोपरि हैं। तबसे सारे राज्य में शनिदेव की पूजा और कथा नियमित होने लगी। सारी प्रजा ने बहुत समय खुशी और आनंद के साथ बीताया। जो कोई शनि देव की इस कथा को सुनता या पढ़ता है, उसके सारे दुःख दूर हो जाते हैं। व्रत के दिन इस कथा को अवश्य पढ़ना चाहिये।
Jai Shanidev Ki Dusri Katha
|| ॐ शन्नो देवी रभिष्टय आपो भवन्तु पीपतये शनयो रविस्र वन्तुनः||
एक बार नव ग्रहो में बहस हो गई की नव ग्रहो में सबसे उत्तम कौन है। इस बात के निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए सभी देवता देवराज इंद्र के पास पहुंच गए। उन्होंने कहा, ‘हे देवराज! अब आप ही निर्णय करें कि हम सब में से बड़ा कौन है। देवताओें द्वारा पूछें गए सवाल से देवराज इंद्र उलझन में पड़ गए। इंद्र देव ने कहा कि मैं इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता। मैं असमर्थ हूं। इस सवाल का जवाब पाने के लिए वो सभी पृथ्वीलोक में उज्जयिनी नगरी के राजा विक्रमादित्य के पास गए।
राजा विक्रमादित्य के महल पहुंचकर सभी देवताओं ने प्रश्न किया। इस पर राजा विक्रमादित्य भी असमंजस में पड़ गए। वो सोच रहे थे कि सभी के पास अपनी-अपनी शक्तियां हैं जिसके चलते वो महान हैं। अगर किसी को छोटा या बड़ा कहा गया तो उन्हें क्रोध के कारण काफी हानि हो सकती है। इसी बीच राजा को एक तरीका सूझा। उन्होंने 9 तरह की धातु बनवाई जिसमें स्वर्ण, रजत (चाँदी), कांसा, ताम्र (तांबा), सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक व लोहे शामिल थे। राज ने सभी धातुओं को एक-एक आसन के पीछे रख दिया। इसके बाद उन्होंने सभी देवताओें को सिंहासन पर बैठने के लिए कहा। धातुओं के गुणों के अनुसार सभी आसनों को एक-दूसरे के पीछे रखवाकर उन्होंने देवताओं को अपने-अपने सिंहासन पर बैठने को कहा।
जब सभी देवताओं ने अपना-अपना आसन ग्रहण कर लिया तब राजा विक्रमादित्य ने कहा- ‘इस बात का निर्णया हो चुका है। जो सबसे पहले सिंहासन पर बैठा है वही बड़ा है।’ यह देखकर शनि देवता बहुत नाराज हुए उन्होंने कहा, ‘राजा विक्रमादित्य! यह मेरा अपमान है। तुमने मुझे सबसे पीछे बैठाया है। मैं तुम्हारा विनाश कर दूंगा। तुम मेरी शक्तियों को नहीं जानते हो।’ शनि ने कहा- ‘एक राशि पर सूर्य एक महीने, चंद्रमा सवा दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, बृहस्पति तेरह महीने रहते हैं। लेकिन मैं किसी भी राशि पर साढ़े सात वर्ष रहता हूं। मैंने अपने प्रकोप से बड़े-बड़े देवताओं को पीड़ित किया है। मेरे ही प्रकोप के कारण श्री राम को वन में जाकर रहना पड़ा था क्योंकि उन पर साढ़े साती थी। रावण की मृत्यु भी इसी कारण हुई। अब तू भी मेरे प्रकोप से नहीं बच पाएगा। शनिदेव ने बेहद क्रोध में वहां से विदा ली। वहीं, बाकी के देवता खुशी-खुशी वहां से चले गए।
इसके बाद सब कुछ सामान्य ही चलता रहा। राजा विक्रमादित्य पहले की तरह ही न्याय करते रहे। दिन ऐसे ही बीतते रहे लेकिन शनि देव अपना अपमान नहीं भूले। एक दिन राजा की परीक्षा लेने शनिदेव घोड़े के व्यापारी के रूप में राज्य पहुंचे। जब राजा विक्रमादित्य को इस बात का पता चला तो उन्होंने अपने अश्वपाल को कुछ घोड़े खरीदने के लिए भेजा। अश्वपाल लौट आया और राजा को बताया कि धोड़े बेहद ही कीमती हैं। राजा ने खुद जाकर एक सुंदर और शक्तिशाली घोड़ा पसंद किया और उसकी चाल देखने के लिए घोड़े पर सवार हो गए। जैसे ही राजा विक्रमादित्य घोड़े पर बैठे वैसे ही घोड़ा बिजली की रफ्तार से दौड़ पड़ा। घोड़ा राजा को एक जंगल ले गया और वहां जाकर राजा को नीचे गिरा दिया और फिर कहीं गायब हो गया। राज्य का रास्ता ढूंढने के लिए राजा जंगल में भटकने लगा। लेकिन उसे कोई रास्ता नहीं मिला।
कुछ समय बाद उसे एक चरवाहा मिला। भूख-प्यास से परेशान उस राजा ने चरवाहे से पानी मांगा। चरवाहे ने उसे पानी दिया और राजा ने उसे अपनी एक अंगूठी दे दी। रास्ता पूछकर राजा जंगल से निकल गया और पास में ही मौजूद एक नगर में पहुंच गया। एक सेठ की दुकान पर राजा ने कुछ आराम के लिए रुका। वहां, सेठ से बातचीत करते हुए उसने बताया कि वो उज्जयिनी नगरी से आया है। राजा कुछ देर तक उस दुकान पर बैठा। जितनी देर वो वहां बैठा सेठजी की काफी बिक्री हो गई। सेठ ने राजा को बहुत भाग्यवान समझा। सेठ ने राजा को अपने घर खाने पर आमंत्रित किया।
सेठ के घर में एक खूंटी पर सोने का हार लटका था। उसी कमरे में वो राजा को छोड़कर बाहर चला गया। कुछ समय बाद खूंटी उस सोने के हार को निगल गई। सेठ ने विक्रमादित्य से वापस आकर पूछा की उसका हार कहां है। तब राजा ने उसे हार गायब होने की बात बताई। सेठ ने क्रोधित होकर विक्रमादित्य के हाथ-पैर कटवाने के आदेश दे दिए। राजा विक्रमादित्य के हाथ-पाँव काटकर उसे नगर की सड़क पर छोड़ दिया गया।
फिर कुछ समय बाद विक्रमादित्य को एक तेली अपने साथ ले गया। तेली ने उसे अपने कोल्हू पर बैठा दिया। वह पूरा दिन बैलों को आवाज देकर हांकता था। विक्रमादित्य का जीवन इसी तरह यापन होता रहा। उस पर शनि की साढ़े साती थी जिसके खत्म होने पर वर्षा ऋतु शुरू हुई।
एक दिन राजा मेघ मल्हार गा रहा था। उसी समय उस नगर के राजा की बेटी राजकुमारी मोहिनी ने उसकी आवाज सुनी। उसे आवाज बेहद पसंद आई। मोहिनी ने अपनी दासी को भेजकर गाने वाले को बुलाने को कहा। जब दासी लौटी तो उसने अपंग राजा के बारे में मोहिनी को सब बताया। लेकिन राजकुमारी उसके मेघ मल्हार पर मोहित हो चुकी थी। अपंग होने के बाद भी वह राजा से विवाह करने के लिए मान गई। जब मोहिनी के माता-पिता को इसका पता चला तो वो हैरान रह गए। रानी ने अपनी बेटी को समझाते हुए कहा कि तेरे भाग्य में किसी राजा की रानी का सुख है। तू इस अपंग से क्यों विवाह करना चाहती है। लेकिन समझाने के वाबजूद भी राजकुमारी अड़ी रहीं। जिद्द को पूरा कराने के लिए राजकुमारी ने भोजन छोड़ दिया।
अपनी बेटी की खुशी के लिए राजा-रानी अपंग विक्रमादित्य से मोहिनी का विवाह करने के लिए तैयार हो गए। दोनों का विवाह हुआ और वो तेली के घर रहने लगे। उसी दिन विक्रमादित्य के सपने में शनिदेव आए। उन्होंने कहा कि देखा तूने मेरा प्रकोप राजा ने शनिदेव से उसे क्षमा करने को कहा। उन्होंने कहा कि जितना दुःख आपने मुझे दिया है, उतना किसी और को मत देना।
इस पर शनिदेव ने कहा, ‘राजा! मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ। जो कोई व्यक्ति मुझे पूजेगा, व्रत करेगा और मेरी कथा सुनेगा उस पर मेरी कृपा-दृष्टि बनी रहेगी। सुबह जब राजा विक्रमादित्य की नींद खुली तो उसने देखा की उसके हाथ-पांव वापस आ गए हैं। उन्होंने मन ही मन में शनिदेव को नमन किया। राजकुमारी भी विक्रमादित्य के हाथ-पैर देखकर हैरान रह गई। तब राजा ने शनिदेव के प्रकोप की कथा सुनाई।
जब सेठ को यह बात पता चली तो वो तेली के घर पहुंचा। उसने राजा विक्रमादित्य से उनके पैरों में गिरकर माफी मांगी। राजा ने सेठ को माफ कर दिया। सेठ ने राजा से उसके घर जाकर भोजन करने के लिए कहा। भोजन करते हुए अचानक से ही खूँटी ने हार उगल दिया। सेठजी ने अपनी बेटी का विवाह भी राजा के साथ कर दिया। उन्होंने उसे स्वर्ण-आभूषण, धन आदि देकर राजा के साथ विदा कर दिया।
राजा विक्रमादित्य अपनी दोनों पत्नियों यानी राजकुमारी मोहिनी और सेठ की बेटी के साथ अपने राज्य उज्जयिनी पहुंचे। सभी ने उनका स्वागत किया। इसके बाद राजा विक्रमादित्य ने पूरे राज्य में घोषणा करते हुए कहा कि आज से शनिदेव सब देवों में सर्वश्रेष्ठ माने जाएंगे। साथ ही शनिदेव का व्रत करें और व्रतकथा जरूर सुनें। यह देखकर शनिदेव बहुत खुश हुए। व्रत करने और व्रत कथा सुनने से शनिदेव की कृपा रहने लगी और लोग आनंदपूर्वक रहने लगा।
बोलो शनि देव महाराज की जय
Shani dev Chalisha
दोहा
जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल करण कृपाल। दीनन के दुख दूर करि, कीजै नाथ निहाल॥
जय जय श्री शनिदेव प्रभु, सुनहु विनय महाराज। करहु कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज॥
शनि चालीसा चौपाई
जयति जयति शनिदेव दयाला। करत सदा भक्तन प्रतिपाला॥
चारि भुजा, तनु श्याम विराजै। माथे रतन मुकुट छबि छाजै॥
परम विशाल मनोहर भाला। टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला॥
कुण्डल श्रवण चमाचम चमके। हिय माल मुक्तन मणि दमके॥
कर में गदा त्रिशूल कुठारा। पल बिच करैं अरिहिं संहारा॥
पिंगल, कृष्णो, छाया नन्दन। यम, कोणस्थ, रौद्र, दुखभंजन॥
सौरी, मन्द, शनी, दश नामा। भानु पुत्र पूजहिं सब कामा॥
जा पर प्रभु प्रसन्न ह्वैं जाहीं। रंकहुँ राव करैं क्षण माहीं॥
पर्वतहू तृण होई निहारत। तृणहू को पर्वत करि डारत॥
राज मिलत बन रामहिं दीन्हयो। कैकेइहुँ की मति हरि लीन्हयो॥
बनहूँ में मृग कपट दिखाई। मातु जानकी गई चुराई॥
लखनहिं शक्ति विकल करिडारा। मचिगा दल में हाहाकारा॥
रावण की गति-मति बौराई। रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई॥
दियो कीट करि कंचन लंका। बजि बजरंग बीर की डंका॥
नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा। चित्र मयूर निगलि गै हारा॥
हार नौलखा लाग्यो चोरी। हाथ पैर डरवायो तोरी॥
भारी दशा निकृष्ट दिखायो। तेलिहिं घर कोल्हू चलवायो॥
विनय राग दीपक महं कीन्हयों। तब प्रसन्न प्रभु ह्वै सुख दीन्हयों॥
हरिश्चन्द्र नृप नारि बिकानी। आपहुं भरे डोम घर पानी॥
तैसे नल पर दशा सिरानी। भूंजी-मीन कूद गई पानी॥
श्री शंकरहिं गह्यो जब जाई। पारवती को सती कराई॥
तनिक विलोकत ही करि रीसा। नभ उड़ि गयो गौरिसुत सीसा॥
पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी। बची द्रौपदी होति उघारी॥
कौरव के भी गति मति मारयो। युद्ध महाभारत करि डारयो॥
रवि कहँ मुख महँ धरि तत्काला। लेकर कूदि परयो पाताला॥
शेष देव-लखि विनती लाई। रवि को मुख ते दियो छुड़ाई॥
वाहन प्रभु के सात सुजाना। जग दिग्गज गर्दभ मृग स्वाना॥
जम्बुक सिंह आदि नख धारी। सो फल ज्योतिष कहत पुकारी॥
गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं। हय ते सुख सम्पति उपजावैं॥
गर्दभ हानि करै बहु काजा। सिंह सिद्धकर राज समाजा॥
जम्बुक बुद्धि नष्ट कर डारै। मृग दे कष्ट प्राण संहारै॥
जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी। चोरी आदि होय डर भारी॥
तैसहि चारि चरण यह नामा। स्वर्ण लौह चाँदी अरु तामा॥
लौह चरण पर जब प्रभु आवैं। धन जन सम्पत्ति नष्ट करावैं॥
समता ताम्र रजत शुभकारी। स्वर्ण सर्व सर्व सुख मंगल भारी॥
जो यह शनि चरित्र नित गावै। कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै॥
अद्भुत नाथ दिखावैं लीला। करैं शत्रु के नशि बलि ढीला॥
जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई। विधिवत शनि ग्रह शांति कराई॥
पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत। दीप दान दै बहु सुख पावत॥
कहत राम सुन्दर प्रभु दासा। शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा॥
दोहा
पाठ शनिश्चर देव को, की हों ‘भक्त’ तैयार।
करत पाठ चालीस दिन, हो भवसागर पार॥
Aarti of Shani Dev Ji
शनि देव की आरती
जय जय श्री शनिदेव भक्तन हितकारी।
सूर्य पुत्र प्रभु छाया महतारी॥
जय जय श्री शनि देव….
श्याम अंग वक्र-दृष्टि चतुर्भुजा धारी।
नी लाम्बर धार नाथ गज की असवारी॥
जय जय श्री शनि देव….
क्रीट मुकुट शीश राजित दिपत है लिलारी।
मुक्तन की माला गले शोभित बलिहारी॥
जय जय श्री शनि देव….
मोदक मिष्ठान पान चढ़त हैं सुपारी।
लोहा तिल तेल उड़द महिषी अति प्यारी॥
जय जय श्री शनि देव….
जय जय श्री शनि देव….
देव दनुज ऋषि मुनि सुमिरत नर नारी।
विश्वनाथ धरत ध्यान शरण हैं तुम्हारी॥
जय जय श्री शनि देव भक्तन हितकारी।।
जय जय श्री शनि देव….
जय शनि देव जी!